भाव भंगिमा बह रही,
नाव युगीन कविता की,
सृजन की आशा जग रही ।
सोचता हूं कि यह जग,
चाहता है कैसा जीवन,
कैसे जियूँ इस नीरस पटल में,
कर रहा हूं यह चिंतन।
यह जगत है भाव प्रणीत,
करुणा दया सब है विचरते,
सुख के पीछे है दुख आता
कोई हँसते टी को रोते।
यह विधाता का कैसा ,
विश्व का है छनिक खेल,
जीवन ऐसा जिओ कि,
सदा रहे सुख ही सुख का मेल।
जब में दुख ही दुख फैला,
क्या कहूं कितना है विस्तृत,
आगे क्या अब लेखनी चलाऊ,
विचार मन से हुए हैं विस्मृत।
.....SangJay
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